लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताक़त चुनाव है और विडंबना यह है कि चुनाव ही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी भी बन जाते हैं, जब उन्हें अविश्वसनीय बनाने का खेल शुरू होता है। दुनिया ने बार-बार देखा है कि जैसे ही कोई विपक्ष चुनाव हारता है, अचानक "धांधली" का शोर उठता है। यह महज़ नाराज़गी नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति होती है जिसे वैश्विक राजनीति में कलर रिवोल्यूशन के नाम से जाना जाता है। नाम सुनने में आकर्षक लगता है, जैसे लोकतंत्र को नया रंग दिया जा रहा हो, लेकिन हकीकत में यह लोकतांत्रिक ढांचे का रंग उतारने का प्रयास होता है। इसमें फ़ॉर्मूला बड़ा साफ़ है, चुनाव को बदनाम करो, जनता में अविश्वास फैलाओ, भीड़ को सड़कों पर उतारो और विदेशी ताक़तों के समर्थन से सत्ता बदल दो।
इतिहास गवाह है कि यह तरीका कई देशों में आज़माया गया और सफल भी रहा। 2003 में जॉर्जिया में रोज़ रिवोल्यूशन हुआ, जब विपक्ष ने धांधली का आरोप लगाया और महीनों तक आंदोलन चला। नतीजा यह हुआ कि राष्ट्रपति शेवर्नाद्ज़े को सत्ता छोड़नी पड़ी। 2004 में यूक्रेन में भी आरेंज रिवोल्यूशन हुआ। विक्टर यानुकोविच चुनाव जीत गए थे, लेकिन पश्चिमी देशों को यह स्वीकार नहीं था। चुनाव को फ्रॉड बताया गया और मैदान स्क्वायर में महीनों धरना चला। अमेरिकी और यूरोपीय समर्थन से दोबारा चुनाव कराए गए और सत्ता बदल गई। 2005 में किर्गिस्तान में ट्यूलिप रिवोल्यूशन के नाम पर भी यही पैटर्न दोहराया गया। वोट खरीदने का आरोप लगा, संसद पर कब्ज़ा हुआ, राष्ट्रपति भागे और नई सरकार बैठा दी गई।
यही प्रयोग 2011 में अरब देशों में किया गया। ट्यूनीशिया से लेकर मिस्र और लीबिया तक सोशल मीडिया और एनजीओ के सहारे आंदोलनों को हवा दी गई। कहीं मुद्दा भ्रष्टाचार था, कहीं बेरोज़गारी, कहीं महंगाई—लेकिन लक्ष्य एक ही था, सत्ता पलटना। नतीजा यह हुआ कि इन देशों में लोकतंत्र मजबूत नहीं हुआ बल्कि स्थिरता खत्म हो गई और अराजकता ने जन्म ले लिया। 2020 में बेलारूस में जब लुकाशेंको चुनाव जीते तो विपक्ष ने कहा कि चुनाव चोरी हुए हैं और राजधानी में हफ़्तों तक प्रदर्शन हुए। पश्चिमी देशों ने विपक्ष को मीडिया और आर्थिक मदद दी। 2022 में कज़ाख़स्तान में इंधन की कीमतों पर विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ और देखते ही देखते यह आंदोलन सरकार गिराने के प्रयास में बदल गया। जांच में पाया गया कि कई बाहरी ताक़तें और एनजीओ इसमें शामिल थे।
दक्षिण एशिया भी इस प्रयोगशाला से अछूता नहीं रहा। बांग्लादेश में चुनावों के बाद विपक्ष के विरोध प्रदर्शन और पश्चिमी मीडिया की कवरेज ने कई बार इस पैटर्न की झलक दी। नेपाल में भी संवैधानिक अस्थिरता और विदेशी फंडिंग वाले संगठनों की सक्रियता पर सवाल उठते रहे। भारत में भी चुनावी प्रक्रिया को कटघरे में खड़ा करने की कोशिशें लगातार हुई हैं। कभी ईवीएम पर सवाल उठाए गए, कभी चुनाव आयोग पर। कई बार यह आरोप इतने सुनियोजित अंदाज़ में लगाए गए कि साफ़ महसूस होता है कि यह सिर्फ विपक्ष की निराशा नहीं बल्कि किसी बड़े नैरेटिव का हिस्सा है। अब विपक्ष वोट चोरी का खोखला आरोप लगा रहा है। राहुल-तेजस्वी परिवारवादी राजनीति के दो चेहरे जिनकी योग्यता बस इतनी है कि वे राजनीतिक घराने के उत्तराधिकारी हैं। इन दोनों ने बिहार में मतदाता अधिकार यात्रा की पर इस यात्रा का प्रभाव जनता पर नहीं पड़ा। इसके विपरित राजद ने अकेले पूरे 243 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। विपक्ष राजनीतिक समीकरणों में न एक है न नेक है। पर वो अमेरिका में बैठे उनके आकाओं की आज्ञा और ‘फेवर’ के लोभ के कारण मोहरे के रूप में प्रयोग हो रहा है। राहुल गांधी की गुप्त यात्राएं, मीटिंग और सेटिंग्स में साफ बता रही हैं कि वे नियमित रूप से एक विशेष रणनीति के तहत आदेशित होते हैं और उसको भारत में क्रियान्वित करने का प्रयास करते हैं।
पर भारत जैसे विशाल एवं परिपक्व लोकतंत्र में यह पैंतरा अब तक असफल रहा है, क्योंकि यहाँ जनता सजग है। 90 करोड़ मतदाता वाले लोकतांत्रिक ढांचे को सिर्फ़ नारों या विदेशी समर्थन से हिलाना आसान नहीं। विपक्ष बार-बार ईवीएम हैकिंग और वोट चोरी जैसे आरोप लगाता रहा है, लेकिन जनता का भरोसा इस व्यवस्था पर टिका रहा। इसका कारण है कि भारत के लोकतंत्र ने सात दशकों से ज़्यादा समय में कई संकट झेले हैं और हर बार और मजबूत होकर निकला है। यहां चुनाव आयोग, न्यायपालिका और मीडिया जैसे संस्थानों की मौजूदगी लोकतांत्रिक ढांचे को मज़बूती देती है। परन्तु सबसे महत्वपूर्ण भूमिका में सजग जानता है जो सब समझ रही है।
हालांकि यह भी सच है कि बदलते दौर में डिजिटल प्लेटफॉर्म और एनजीओ नेटवर्क रंग क्रांतियों का नया हथियार बन गए हैं। पश्चिमी देशों की फंडिंग से चलने वाले कई संगठन चुनावी असंतोष को हवा देने का काम करते हैं। भारत में सरकार ने फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रेगुलेशन एक्ट (FCRA) के ज़रिए कई एनजीओ की फंडिंग पर रोक लगाई है, ताकि बाहरी ताक़तें सीधे राजनीतिक नैरेटिव को प्रभावित न कर सकें। विपक्ष का काम लोकतंत्र में सत्ता को जवाबदेह बनाना है, लेकिन जब विपक्ष अपनी हार को स्वीकार करने के बजाय चुनावी प्रक्रिया पर अविश्वास फैलाता है, तो वह लोकतंत्र को कमज़ोर करता है।
रंग क्रांतियाँ तभी सफल होती हैं जब जनता को गुमराह कर दिया जाए। लेकिन भारत में जनता के अनुभव और परिपक्वता ने बार-बार यह साबित किया है कि वह केवल आरोपों के आधार पर नहीं भड़कती। सोशल मीडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता ने इस मामले में बड़ी भूमिका निभाई है। यूट्यूबर और छोटे-छोटे प्लेटफॉर्म ग्राउंड रिपोर्टिंग करके वह सच जनता तक पहुँचा देते हैं, जिसे बड़ी मीडिया नज़रअंदाज़ करती हैं। यही कारण है कि यहाँ बार-बार रंग क्रांति की पटकथा लिखने की कोशिश तो होती है, लेकिन वह अधूरी रह जाती है।
इसलिए ज़रूरी है कि भारत का मतदाता सतर्क रहे और यह समझे कि लोकतंत्र की रक्षा सिर्फ़ वोट डालकर नहीं होती, बल्कि चुनावी प्रक्रिया पर विश्वास बनाए रखने से होती है। कलर रिवोल्यूशन लोकतंत्र को मजबूत नहीं करता, बल्कि उसे भीतर से खोखला कर देता है और विदेशी हितों का मोहरा बना देता है। अमेरिका और यूरोप यह पैंतरा कितनी भी बार आज़मा लें, लेकिन भारतीय लोकतंत्र इतना कमजोर नहीं है कि वह सड़क पर जुटी भीड़ या विदेशी डॉलर के सहारे पलट जाए। यहाँ जनता की सजगता ही वह कवच है जो किसी भी रंग की क्रांति को असफल बना देती है।