विप्लव विकास: भारतीय विचारक, स्तंभकार, लेखक, शोधकर्ता और पुस्तक प्रेमी, जो सांस्कृतिक विचारों और पुस्तकों के प्रति अपने प्रेम से लोगों को प्रेरित करते हैं।
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कभी मन में प्रश्न उठता होगा कि बांग्लादेशी हिंदुओं के विकल्प सीमित क्यों हैं? बांग्लादेश में शासन भले ही लोकतांत्रिक दिखता हो, लेकिन व्यवहार में वहाँ की राजनीति और शासन इस्लामी कट्टरपंथ वाली है। न तो सरकार कोई ठोस संरक्षण देती है और न ही न्यायिक प्रणाली पीड़ितों को राहत दिला पाती है। 2006 में नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाले यूनुस की शांति काल दुनिया ने विगत एक वर्ष में देख ही लिया।
कम्युनिस्टों ने आदिवासी क्षेत्रों में सामाजिक पूंजी का निर्माण एक सुनियोजित रणनीति से किया। जहाँ सरकार की मौजूदगी कम थी, वहाँ माओवादियों ने समानांतर 'जनताना सरकार' स्थापित की, सड़क, स्कूल, अस्पताल और सुरक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं के स्थान पर अपना ढांचा खड़ा किया।
भारत की आंतरिक सुरक्षा पर जब भी विमर्श होता है, हमारी चेतना प्रायः पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद की ओर जाती है। पुलवामा, उरी और पहलगाम जैसे घटनाक्रम स्मृति में उभर आते हैं। किंतु अंधेरे में छिपा एक ऐसा रक्तपात है, जो आँकड़ों में आतंकवाद से कहीं आगे है, नक्सलवाद। विगत दो दशकों में नक्सली हिंसा ने लगभग 12,000 से अधिक आम नागरिकों और 3,000 से अधिक सुरक्षाबलों की जान ली है।
आज के समय जब संपूर्ण देश एक निर्णायक युद्ध के लिए मानसिक रूप से प्रस्तुत है तब हमें शांति और सुरक्षा सुनिश्चित करने के उद्देश्य से जो संघर्ष शुरू हो गया है उसे अपेक्षित परिणाम तक पहुंचाने हेतु जन-मन को "धर्म हिंसा तथैव च" के सूत्र का भी परिपालन करने के लिए प्रस्तुत करना होगा। यह सूत्र भारतीय दर्शन की उस गहराई को प्रकट करता है जिसमें धर्म की रक्षा के लिए युद्ध को भी धर्म का ही अंग माना गया है।
डेमोग्राफिक वॉरफ़ेयर, बिना गोली चलाए दुश्मन समाज की आत्मा को भीतर से कमजोरने का षड्यंत्र होता है। भारत के कानून और संविधान की उदारता का खुलकर दुरुपयोग किया जा रहा है। पाकिस्तानी शौहर की बीबी का भारत में बच्चे जनना और मुस्लिम जनसंख्या में लगातार वृद्धि इसी प्रक्रिया के हिस्से हैं।
देश को अब यह तय करना होगा कि क्या वह केवल बाहरी आतंक से लड़ेगा, या उन अंदरूनी ताकतों से भी टकराएगा जो आतंक के असली चेहरे पर पर्दा डालते हैं? क्या हम केवल कसाब जैसे हत्यारों को फांसी देंगे या उन भारत-विरोधी मानसिकताओं से भी लड़ेगे जो देश को कमजोर करती हैं, विभाजित करती हैं और भ्रमित करती हैं?
इतिहास के नाम पर हिंदू समाज से बार-बार कहा जाता है कि उसे अपने अतीत की पीड़ाओं को भूलकर आगे बढ़ना चाहिए। हिंदुओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे सहिष्णु बने रहें, जबकि दूसरे पक्ष को अपनी मजहबी भावनाओं के प्रदर्शन की पूरी स्वतंत्रता दी जाती है। यदि भाईचारा केवल एकतरफा सहिष्णुता पर टिका रहेगा, तो यह दीर्घकालिक नहीं हो सकता।
चैतन्य महाप्रभु ने कैसे बंगाल को इस्लामीकरण से बचाया? संकीर्तन आंदोलन क्या है ? जगन्नाथ पूरी का गौरांग महाप्रभु से सम्बन्ध क्या है ? ये सब जानने के लिए इस आलेख को पढ़ें।
एकतरफा विमर्श के कारण पुरुषों को उत्पीड़क और महिलाओं को पीड़ित दिखाया जा रहा है, जिससे समाज में असंतुलन बढ़ रहा है। हमें यह समझना होगा कि नारी केवल "पुरुष-विरोधी" नहीं, बल्कि समाज को संवारने वाली शक्ति है।
"चंगाई सभा" के माध्यम से गरीब और वंचित समुदायों को लक्षित कर उनके ईसाईकरण के प्रयासों ने हाल के वर्षों में गंभीर चिंताएँ उत्पन्न की हैं। "चंगाई सभा" यानि "चमत्कारी चिकित्सा सभा"। इन सभाओं में प्रार्थना और चमत्कारीक उपचार के माध्यम से शारीरिक और मानसिक बीमारियों से मुक्ति दिलाने का दावा किया जाता है। परन्तु देखा गया है कि इन सभाओं का उपयोग गरीबो के ईसाईकरण के लिए किया जा रहा है।
प्रेम का यह बाजारीकरण केवल उपभोक्तावाद को बढ़ावा नहीं देता बल्कि धीरे-धीरे प्रेम की परिभाषा को वासना और शारीरिक अंतरंगता की ओर मोड़ रहा है। यह परिवर्तन विशेष रूप से भारत जैसे देश के लिए चिंताजनक है, जहाँ प्रेम को आत्मिक संबंध और पवित्रता से जोड़ा गया है। बाजार के दबाव के चलते यह विचार थोप दिया गया है !
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