ऑपरेशन सिंदूर और ब्लैक फॉरेस्ट की सफलता से भारत और भारत-हितैषी लोगों में उत्साह है। बीते साल बांग्लादेश में हिंदू नरसंहार ने भारत में चिंता पैदा की थी। कई लोगों को लगा कि ट्रम्प के सत्ता में लौटने पर स्थिति बदलेगी, लेकिन जिहादी हिंसा जारी रही,बस चर्चा कम हो गई है। आज भी बांग्लादेश में हिंदू समुदाय भारी संकट में है। जहाँ कभी चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते थे, आज वहाँ हिंदुओं का नरसंहार और बालिकाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हो रहा है। 1971 में बांग्लादेश की आज़ादी में बलिदान देने वाला बांग्लादेशी हिन्दू अब अपने अस्तित्व के मिटने के कगार पर है। रोज मंदिरों पर हमले, बेटियों के अपहरण और धर्मांतरण की घटनाएँ दिखाती हैं कि अब हिंदुओं को अपनी रक्षा के लिए एक संगठित 'हिंदू मुक्तिवाहिनी' बनानी होगी। जब तक पीड़ित खुद खड़ा नहीं होता, बाहरी सहयोग की उम्मीद व्यर्थ है, पांडव भी तभी समर्थन पाए जब वे कुरुक्षेत्र में उतरे।
बंगाल में हिंदुओं पर अत्याचार कोई नई बात नहीं है। 1905 में बंगाल विभाजन से लेकर 1947 के रक्तरंजित बंटवारे तक और फिर 1971 के युद्ध में, हर बार हिंदू समाज को सबसे अधिक झेलना पड़ा है। खासकर 1971 में, जब पाकिस्तानी सेना और उनके स्थानीय सहयोगी राजाकारों ने ‘मुक्ति’ के नाम पर लाखों हिंदुओं का कत्लेआम किया, लाखों महिलाओं के साथ बलात्कार किया। लाखों हिंदू परिवार भारत की सीमा में शरण लेने को मजबूर हुए।
उस समय हिंदुओं ने बांग्लादेश की आज़ादी के लिए एक सच्चे सिपाही की तरह लड़ाई लड़ी। परंतु दुखद यह है कि स्वतंत्रता के 50 वर्षों बाद भी हिंदुओं को वहां सम्मानजनक और सुरक्षित जीवन नहीं मिल पाया।
आप अगर ये सोच रहे है की शेख हसीना के शासन में हिन्दू सुरक्षित रहे या रहेंगे तो ये भी एक भ्रम है। हत्याएं और उसकी चर्चा कम हो जाती है और दूसरों के शासन या तख्तापलट के बाद ये नरसंहार का रूप लेती हैं। इसी क्रमानुगत तरीके से हिन्दुओं की संख्या पाकिस्तान के हिन्दुओं की तरह बांग्लादेश में निर्मूल कर दी जाएगी। बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी निरंतर घटती जा रही है। 1947 में यह लगभग 30% थी, जो अब घटकर मात्र 7-8% रह गई है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टें और स्थानीय संगठनों के आँकड़े बताते हैं कि हर वर्ष हज़ारों हिंदू परिवार या तो पलायन कर जाते हैं या उनकी बेटियाँ अपहृत होकर धर्म बदलने को मजबूर की जाती हैं।
कभी मन में प्रश्न उठता होगा कि बांग्लादेशी हिंदुओं के विकल्प सीमित क्यों हैं? बांग्लादेश में शासन भले ही लोकतांत्रिक दिखता हो, लेकिन व्यवहार में वहाँ की राजनीति और शासन इस्लामी कट्टरपंथ वाली है। न तो सरकार कोई ठोस संरक्षण देती है और न ही न्यायिक प्रणाली पीड़ितों को राहत दिला पाती है। 2006 में नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाले यूनुस की शांति काल दुनिया ने विगत एक वर्ष में देख ही लिया। भारत, जो कि 1971 में बांग्लादेश के निर्माण का मूल सहयोगी था, आज केवल कूटनीतिक चुप्पी साधे बैठा है। विश्व समुदाय , संयुक्त राष्ट्र, ह्यूमन राइट्स वॉच या अन्य मानवाधिकार संगठन , बांग्लादेशी हिंदुओं के मुद्दे पर चुप हैं। ऐसे में बांग्लादेशी हिंदुओं के पास अब न तो कोई रक्षक बचा है, न ही कोई दूसरा विकल्प। या तो वे पलायन करें, या फिर कट्टरपंथियों की दया पर जीवन बिताएँ। या फिर अपनी विनाश को चुपचाप देखते हुए समाप्त हो जाएं !
फिर मुक्ति-मार्ग क्या है? 'हिंदू मुक्तिवाहिनी' का निर्माण और संघर्ष। इतिहास साक्षी है , धर्म और अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु संघर्ष कोई अपराध नहीं है।
श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा है
“हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः”
आज जब बांग्लादेश में हिंदुओं को मिटाने की योजनाबद्ध साज़िश चल रही है, तब आत्मरक्षा ही उनका एकमात्र रास्ता है। एक ‘हिंदू मुक्तिवाहिनी’ का गठन समय की मांग है , एक ऐसा संगठन जो न केवल शारीरिक रक्षा कर सके, बल्कि सांस्कृतिक, धार्मिक और भौगोलिक अस्तित्व की रक्षा भी करे। यह एक अनुशासित, और रणनीतिक समूह हो जो प्रतिघात और पराक्रम के लिए नित्यसिद्ध हो, जैसे यहूदियों ने इसराइल में अपनी सुरक्षा के लिए किया, या जैसे भारत में हमारे पूर्वजों ने मुग़ल काल में किया। हर हिंदू, हर मानवतावादी को यह समझना होगा कि यह विचार हिंसा नहीं, अस्तित्व की लड़ाई का है।
यह आंदोलन संगठित रूप से तभी सफल हो सकता है जब प्रवासी और बांग्लादेशी हिंदू समाज मिलकर एक ठोस रणनीति के साथ आगे बढ़ें। सबसे पहले, बांग्लादेशी हिन्दुओं को निश्चय करना होगा कि अपने अस्तित्व रक्षा के लिए एकमात्र विकल्प है, हिन्दू मुक्तिवाहिनी के माध्यम से अलग हिन्दू-होमलैंड हेतु हर मोर्चे पर संघर्ष। इसमें प्रवासी हिंदुओं का सहयोग अत्यंत आवश्यक है। विश्वभर में फैले हिंदू समुदाय को एकजुट होकर आर्थिक फंडिंग, कानूनी सहायता और जनजागरण के लिए सक्रिय किया जाना चाहिए। इसके साथ-साथ डिजिटल नेटवर्किंग के माध्यम से सोशल मीडिया पर संगठित अभियान चलाए जाएं, वीडियो डॉक्युमेंटेशन और साक्ष्य एकत्र कर उन्हें अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुँचाया जाए। इस आंदोलन का एक मजबूत पक्ष होगा सेल्फ डिफेंस ट्रेनिंग, देश-विदेश में युवाओं को आत्मरक्षा हेतु प्रशिक्षित करने के लिए केंद्र खोले जाएं। यद्यपि सरकारें इस विषय पर मौन हो सकती है, परंतु नागरिक स्तर पर सहयोग लिया जा सकता है, जहाँ समाज शिक्षा, निधि, शरण और प्रशिक्षण जैसी सहायता प्रदान कर सकता है। अंततः, कानूनी पहल भी इस आंदोलन का एक अहम स्तंभ होनी चाहिए, जहाँ अंतरराष्ट्रीय अदालतों और मानवाधिकार मंचों पर सुनवाई और न्याय के लिए मुकदमे दायर किए जाएं। इस प्रकार यह आंदोलन केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि रणनीतिक और निर्णायक रूप से संगठित बन सकता है।
एक बात स्पष्ट है कि बांग्लादेशी हिंदुओं के सामने अब अस्तित्व का प्रश्न खड़ा है। यह कोई धार्मिक वर्चस्व की लड़ाई नहीं है, बल्कि जीवन और संस्कृति की रक्षा की अनिवार्यता है। यदि अब भी हिंदू समाज चुप बैठा रहा, तो कल इतिहास हमें माफ़ नहीं करेगा। ‘हिंदू मुक्तिवाहिनी’ अब केवल एक विचार नहीं, बांग्लादेशी हिंदुओं के अस्तित्व की रक्षा की एक अनिवार्य आवश्यकता है।
