भारत की आंतरिक सुरक्षा पर जब भी विमर्श होता है, हमारी चेतना प्रायः पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद की ओर जाती है। पुलवामा, उरी और पहलगाम जैसे घटनाक्रम स्मृति में उभर आते हैं। किंतु अंधेरे में छिपा एक ऐसा रक्तपात है, जो आँकड़ों में आतंकवाद से कहीं आगे है, नक्सलवाद। विगत दो दशकों में नक्सली हिंसा ने लगभग 12,000 से अधिक आम नागरिकों और 3,000 से अधिक सुरक्षाबलों की जान ली है। यह आँकड़ा मात्र नहीं, हमारे लोकतंत्र की पीठ पर चलती अदृश्य तलवार का संकेत है।
नक्सलवाद मात्र हिंसक गतिविधियों की श्रृंखला नहीं है, यह उस वामपंथी विचारधारा का विस्तार है जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया की जगह बंदूक की नली से न्याय दिलाने का दावा करती है। माओवादियों ने भारत के पिछड़े क्षेत्रों, बस्तर, दंतेवाड़ा, गढ़चिरौली, जैसे जिलों में, आदिवासी असंतोष, निर्धनता और सामाजिक उपेक्षा को हथियार बनाकर एक छद्म "जनक्रांति" का ढांचा खड़ा करने की चेष्टा की। ये क्षेत्र अब तक क्यों पिछड़े रहे? नक्सलियों या माओवादियों ने विकास नहीं होने दिया या फिर सरकार ने विकास नहीं किया? वर्षों की रणनीति के तहत इन वामपंथियों ने समानांतर सरकारों का ढांचा रचा, जन अदालतें, सांगठनिक सेना, हथियार निर्माण कारखाने, वसूली तंत्र और विचारधारात्मक प्रशिक्षण केंद्र।
आज जबकि सरकार "नक्सल मुक्त भारत" की दिशा में अभियान चला रही है, ऑपरेशन ब्लैक फॉरेस्ट जैसे सशस्त्र प्रयत्नों के साथ, यह समझना आवश्यक है कि यह लड़ाई केवल सैन्य अभियान की नहीं, वैचारिक भी है। यह युद्ध विमर्शों का, जनमानस पर प्रभाव जमाने की रणनीति का भी है। और इसी रणक्षेत्र में हम नागरिक खड़े होते है, जो बंदूक नहीं, शब्द और सत्य के बल पर माओवादी विचारधारा को परास्त करने की क्षमता रखते हैं। जाग्रत, सजग और मुखर नागरिक ही भारत का "नैरेटिव वॉरियर" है।
माओवादी विमर्श की संरचना बड़ी कुशलता से की गई है, शोषण के विरुद्ध प्रतिरोध, सामाजिक न्याय की पुनर्रचना, और राज्य के विरुद्ध जनक्रांति की परियोजना। वे मिथ्या प्रतिमान गढ़ते हैं कि माओवाद सत्ता का विकल्प नहीं, न्याय का संकल्प है। मीडिया, अकादमिक मंच और शहरी प्रगतिशील विमर्श इस प्रतिमान को वैधता प्रदान करते हैं। इस वैचारिक आक्रमण का उत्तर बंदूक से नहीं, विमर्श से देना होगा।
जनसामान्य के भीतर माओवादी झूठ की पहचान तभी संभव है, जब सच्चाई को व्यवस्थित ढंग से रखा जाए। इस कार्य में हमारी जागरूकता ही सबसे बड़ी शक्ति है। गाँव-गाँव में, स्कूलों और पंचायतों में, हमें यह स्पष्ट करना होगा कि माओवाद शिक्षा को नष्ट करता है, स्वास्थ्य सेवाओं को पंगु करता है, और रोज़गार के अवसरों को जला डालता है। इसके विरुद्ध खड़ा होना केवल देशभक्ति नहीं, जीवन रक्षा का उपाय है।
उदाहरणार्थ, बस्तर के वे गाँव जहाँ कभी लाल झंडा शासन करता था, अब वहीं बिजली के खंभे खड़े हैं, आंगनवाड़ी चल रही है और महिलाएं स्वयं सहायता समूहों से आजीविका चला रही हैं। यही वे कहानियाँ हैं जिन्हें प्रचारित करना चाहिए। जब पूर्व माओवादी युवा आज सरकारी पुनर्वास नीति के तहत नौकरी करते हैं, तो यह कहानी माओवाद की पराजय की कहानी है।
इस लड़ाई का एक बड़ा क्षेत्र डिजिटल प्लेटफॉर्म है। सोशल मीडिया आज विचारों की रणभूमि हैं। हमें "डिजिटल प्रहरी" बन फेक न्यूज़ का खंडन, माओवादी झूठ का पर्दाफाश और विकास की कहानियों को सोशल मीडिया पर साझा करना होगा। हर सकारात्मक पोस्ट, हर वीडियो, हर सच्ची खबर, एक हथियार है इस वैचारिक युद्ध में।
नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में माओवादी अक्सर स्थानीय बुद्धिजीवियों, आदिवासी नेताओं और मुखर जन प्रतिनिधियों को भय या हत्या से चुप करा देते हैं। ऐसे में हमारी जिम्मेदारी है कि स्थानीय आवाज़ों को मंच दें , सामुदायिक रेडियो, पंचायत घोषणापत्र, स्थानीय पत्रिकाएँ और डिजिटल चैनल इस कार्य में सहायक हो सकते हैं। जब गाँव का युवा मंच पर यह कहता है कि विकास से ही सम्मान मिलता है, तो यह माओवाद की हार है।
हम यह भी देख रहे हैं कि सरकारी प्रयासों से प्रभावित क्षेत्रों में बदलाव आ रहा है, स्वास्थ्य शिविर, मोबाइल मेडिकल यूनिट, सोलर लाइट, ग्रामीण सड़कें और रोजगार मेले, इन सबका असर तब बढ़ता है जब समाज स्वयं इसमें भाग ले। स्वयंसेवी समूहों को हमारा साथ चाहिए, चाहे वह साक्षरता अभियान हो, कौशल प्रशिक्षण या महिला उद्यमिता हो। जिस नक्सलवाड़ी से ये आंदोलन प्रारंभ हुआ वहां आज राष्ट्रीय विचार का प्रभाव है। विद्या मंदिर के विद्यालय चल रहे हैं और इस आंदोलन के प्रभाव का निर्मूलन हो चुका है।
यह भी स्वीकार करना होगा कि नक्सलवाद पुलिस और प्रशासन से अविश्वास की जमीन पर पनपा है। विश्वास बहाली तभी संभव है जब नागरिक पुलिस की सकारात्मक भूमिकाओं को साझा करें, जैसे आत्मसमर्पित नक्सलियों का पुनर्वास, या पुलिस-ग्रामसभा संवाद। और पुलिस-प्रशासन भी संवेदनशीलता का परिचय दे। यह साझी सुरक्षा की अवधारणा है, जो नक्सलवाद की जड़ पर चोट करती है। माओवाद ने जनजातीय संस्कृति को अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया है। इसका उत्तर है, संस्कृतिक पुनरुत्थान । आदिवासी पर्व, लोककला, कथाएँ, वाद्य, हस्तशिल्प,वनोत्पाद, ये सभी पहचान के प्रतीक हैं। जब हम इन्हें सहेजते और सम्मानित करते हैं, तब माओवादी "जन संस्कृति" के नाम पर फैलाए गए झूठ पर पर्दा हटता है।
यह युद्ध केवल जंगलों में नहीं, विचारों में लड़ा जा रहा है। बंदूक की मार जितनी घातक हो, विमर्श की शक्ति उससे कहीं बड़ी हो। यदि हम यह मान लें कि नक्सलवाद को हराने का सबसे प्रभावी मार्ग "लोक-विमर्श का सशक्तिकरण" है, तो प्रत्येक नागरिक की भूमिका रणनीतिक बन जाती है।
हम झूठ के विरुद्ध सत्य को, भय के विरुद्ध विश्वास को, और हिंसा के विरुद्ध विकास को खड़ा कर सकते है। जब यह चेतना जागेगी, तभी 'नक्सल मुक्त भारत' का स्वप्न साकार होगा। यह लड़ाई किसी एक सरकार की नहीं, सेना की नहीं अपितु समूचे समाज की है। और इसका विजयी ध्वज उसी हाथ में होगा, जो कलम, कीबोर्ड और संवाद को माध्यम बना कर वामपंथी जमात के इस रक्त पिपासु रूप की सच्चाई को उजागर कर नागरिक चेतना का निर्माण कर सकेगा। हमारी सैन्य शक्ति इनके निर्मूलन में सक्षम है पर ये रक्तबीज जिन समस्याओं को अपना हथियार बनाते हैं उसके निर्मूलन हेतु समाज एवं सरकार को नीतिगत निर्णय पर एक-दूसरे की सहयोगीता एवं सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी।
