भारत एक विविधता से भरा देश है, जहाँ विभिन्न मत-पंथ, संप्रदाय और विचारधाराएँ सह-अस्तित्व में रही हैं। "वसुधैव कुटुंबकम्" की भावना भारतीय समाज का आधार रही है, जिसमें सभी समुदायों के बीच सह-अस्तित्व और आपसी सम्मान की परंपरा रही है। परंतु जब भावनाओं को भड़काया जाता है और सामाजिक सौहार्द को ठेस पहुँचाई जाती है, तो तथाकथित भाईचारे की नींव हिलने लगती है। हाल ही में नागपुर में हुई घटनाएँ इस बात की गवाही देती हैं कि किस तरह मजहबी असहिष्णुता और कट्टरपंथी सोच को बढ़ावा देकर समाज में दरारें डाली जा रही हैं। नागपुर की घटना केवल एक सांप्रदायिक टकराव नहीं थी, बल्कि यह इस बढ़ती प्रवृत्ति का संकेत है, जिसमें चुन-चुनकर हिंदू दुकानों और वाहनों को निशाना बनाया जाता है। "छत्रपति शिवाजी महाराज की जय" के नारों से चिढ़ना और औरंगज़ेब जैसे क्रूर शासकों का महिमामंडन करना भारत की सांस्कृतिक एकता के लिए एक गंभीर खतरा है। सवाल यह है कि भाईचारे की यह अवधारणा केवल एकतरफा क्यों होनी चाहिए? क्या इसे समानता और परस्पर सम्मान के आधार पर स्थापित नहीं किया जाना चाहिए? जब हिंदू समाज अपने आराध्यों के अपमान पर भी हिंसा का सहारा नहीं लेता, तो एक विशेष वर्ग को दंगे और उपद्रव के लिए उकसाने का यह दोहरा मापदंड क्यों अपनाया जाता है?
महाराष्ट्र के नागपुर में हाल ही में जो सांप्रदायिक घटनाएँ हुईं, वे किसी भी शांतिप्रिय समाज के लिए गंभीर चिंता का विषय हैं। कुछ मुस्लिम युवकों द्वारा योजनाबद्ध तरीके से हिंदुओं की दुकानों और वाहनों को निशाना बनाया गया। यह स्पष्ट रूप से एक सोची-समझी साजिश प्रतीत होती है, जिसमें अफवाहों का सहारा लेकर भीड़ को भड़काया गया और फिर सुनियोजित ढंग से तोड़फोड़ की गई। इस घटना का सबसे गंभीर पहलू यह था कि हिंसा पूरी तरह एकतरफा थी। चुन-चुनकर हिंदुओं की संपत्तियों को ही निशाना बनाया गया, जिससे यह संदेह गहराता है कि यह केवल आक्रोश की उपज नहीं थी, बल्कि किसी गहरी मानसिकता का परिणाम थी। यह पहली बार नहीं हुआ कि किसी अफवाह के आधार पर दंगे भड़काए गए हों। इससे पहले भी कई बार देखा गया है कि योजनाबद्ध तरीके से हिंसा को अंजाम दिया जाता है और फिर मीडिया तथा राजनीतिक बहसों के जरिए वास्तविक मुद्दों को दबाने का प्रयास किया जाता है। जब भी किसी विशेष धार्मिक समूह को हिंसा का शिकार बनाया जाता है, तो यह देश के संवैधानिक मूल्यों पर सीधा हमला होता है।
भारत का इतिहास केवल संघर्षों और आक्रमणों की गाथा नहीं है, बल्कि यह सहिष्णुता, धैर्य और पराक्रम की गाथा भी है। छत्रपति शिवाजी महाराज इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं, जिन्होंने न केवल मुगलों की आक्रामक नीतियों का विरोध किया बल्कि एक ऐसे हिंदवी स्वराज की स्थापना की, जिसमें सभी जातियों और धर्मों के लोगों को समान अवसर मिले। लेकिन आज, जब छत्रपति शिवाजी महाराज की जय के नारे कुछ लोगों को चिढ़ाने लगते हैं और औरंगज़ेब जैसे आक्रांताओं के प्रति सहानुभूति रखी जाती है, तो यह स्पष्ट होता है कि इतिहास को तोड़-मरोड़कर एक विकृत विचारधारा को बढ़ावा दिया जा रहा है। औरंगज़ेब भारतीय इतिहास का सबसे कट्टर शासक था, जिसने हिंदू मंदिरों को तोड़ा, जबरन धर्मांतरण करवाए, और जज़िया कर लगाया। इसके बावजूद, अगर मुस्लिम समाज उसकी तारीफ करता है और उसके नाम पर विवाद खड़ा करता है, तो यह एक चिंताजनक प्रवृत्ति है।
भाईचारा केवल एक राजनीतिक नारा नहीं है, बल्कि यह समाज के संतुलन और स्थिरता का आधार है। लेकिन जब एक समुदाय से लगातार सहिष्णुता की अपेक्षा की जाती है और दूसरे समुदाय को विशेषाधिकार दिए जाते हैं कि वह अपनी धार्मिक भावनाओं को उग्रता तक ले जा सकता है, तो यह सामाजिक संतुलन कभी नहीं बन सकता। हिंदू समाज ने बार-बार यह सिद्ध किया है कि वह आस्था के नाम पर हिंसा में विश्वास नहीं रखता। राम और कृष्ण के अपमान पर, मंदिरों के विध्वंस पर, और धार्मिक आस्थाओं के खुलेआम अपमान पर भी उसने संयम बनाए रखा है। लेकिन मुस्लिमों को यह छूट दी जाए कि वह किसी भी अफवाह या छोटे-से मुद्दे पर हिंसा का सहारा ले सकता है, तो यह एक गहरी असमानता को जन्म देता है। मीडिया और राजनीतिक विमर्श में भी यह भेदभाव स्पष्ट रूप से देखा जाता है। जब हिंदू समाज पर हमले होते हैं, मंदिरों को निशाना बनाया जाता है, या देवी-देवताओं की निंदा की जाती है, तब यही मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवी चुप रहते हैं। लेकिन जब कोई अन्य समुदाय किसी घटना से आहत होता है, तो तत्काल सहिष्णुता की दुहाई दी जाती है।
इतिहास के नाम पर हिंदू समाज से बार-बार कहा जाता है कि उसे अपने अतीत की पीड़ाओं को भूलकर आगे बढ़ना चाहिए। हिंदुओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे सहिष्णु बने रहें, जबकि दूसरे पक्ष को अपनी मजहबी भावनाओं के प्रदर्शन की पूरी स्वतंत्रता दी जाती है। यदि भाईचारा केवल एकतरफा सहिष्णुता पर टिका रहेगा, तो यह दीर्घकालिक नहीं हो सकता। एक स्वस्थ समाज में पारस्परिक सम्मान और समानता ही इसकी नींव होनी चाहिए। इन घटनाओं से हमें यह सीख लेनी चाहिए कि समाज में शांति और सद्भाव तभी संभव है जब हर नागरिक समान अधिकारों और कर्तव्यों को स्वीकार करे। हमें धार्मिक उन्माद और भड़काऊ अफवाहों से बचकर, सच्चाई और न्याय के पक्ष में खड़े होना होगा। भाईचारे की वास्तविकता केवल उपदेशों से नहीं, बल्कि व्यवहारिक समानता और निष्पक्षता से स्थापित होगी। समाज के हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है कि वह नफरत और पक्षपात की राजनीति को अस्वीकार करे और एक ऐसे भारत के निर्माण में योगदान दे, जहाँ पारस्परिक सम्मान और न्याय ही समाज की नींव हो। अब समय आ गया है कि हम अंधी सहिष्णुता के भ्रम से बाहर निकलें और एक संतुलित, जिम्मेदार और न्यायसंगत समाज की ओर बढ़ें।
