Viplav Vikas | Bharatiya Thought Leader | Author | Columnist

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स्वामी विवेकानंद और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम

2025-01-12  विप्लव विकास

कल हमने पौष शुक्ल द्वादशी को श्रीराम जन्मभूमि मंदिर में रामलल्ला के प्राण-प्रतिष्ठा का प्रथम वार्षिकोत्सव मनाया या यूं कहें देश ने दूसरी दीपावली मनाई। आज जैसे श्रीराम जन्मभूमि मंदिर भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का केंद्र बन गया है वैसे ही भारतीय स्वाधीनता संग्राम के पूर्वार्द्ध में जनमानस में न‌ई जागृति और नवोत्साह का संचार करने वाले महापुरुषों में एक ध्रुव व्यक्तित्व हैं स्वामी विवेकानंद जी। उनकी ओजस्वी वाणी ने हमें आत्मबोध और शत्रुबोध कराया। स्वामी जी ने युवाओं में क्षात्र तेज और ब्राह्मतेज की साधना का संकल्प जगाया। उनके आह्वान पर सुषुप्तावस्था का भारत आंखें खोल कर अंगड़ाइयां लेने लगा।   

 

वह भारतवर्ष, जिसकी पहचान सहस्त्रों वर्षों से अपनी आध्यात्मिक धरोहर, ज्ञान और सांस्कृतिक वैभव से रही है, औपनिवेशिक काल में आत्मविस्मृति और पराभव के अंधकार में डूब चुका था। ऐसी स्थिति में इस महापुरुष ने भारतीय जनमानस को उसकी खोई हुई चेतना से परिचित कराया। स्वामी विवेकानंद, एक संन्यासी, जिन्होंने केवल ध्यान और वैराग्य को ही जीवन का आधार नहीं बनाया, अपितु कर्म, त्याग और आत्मनिर्भरता के माध्यम से भारत की आत्मा को पुनर्जीवित करने का संकल्प लिया। उनकी उपस्थिति स्वतंत्रता संग्राम के शैशवकाल में वह प्रेरणास्रोत बनी, जिसने न केवल जनसामान्य को, अपितु राष्ट्र के भावी स्वप्नदर्शियों और सेनानायकों को भी जागृत किया।  

 

स्वामी विवेकानंद के विचारों की गहराई केवल उनके शिकागो में दिए गए भाषणों तक सीमित नहीं थी। उनके शब्दों में वह शक्ति थी, जो एक जड़ हो चुके समाज को उसकी नाड़ी का बोध कराती थी। उनका कहना था, "हमारी सबसे बड़ी कमजोरी हमारी आत्मविस्मृति है। उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो।" यह संदेश, स्वतंत्रता संग्राम के आरंभिक दौर में, एक नए आत्मबोध का शंखनाद था। उनके विचारों ने भारतीय युवाओं को यह बोध कराया कि वे केवल गुलामी की बेड़ियों में जकड़े हुए लोग नहीं, बल्कि एक ऐसी महान परंपरा के वाहक हैं, जो विश्व को ज्ञान, करुणा और शक्ति का प्रकाश दे सकती है।  

 

स्वामी विवेकानंद का स्वतंत्रता आंदोलन से संबंध सीधा राजनीतिक न होकर सांस्कृतिक और नैतिक था। वह उस मानसिकता के कट्टर आलोचक थे, जो भारतीयों को हीन और अशक्त मानती थी। ब्रिटिश शासन के द्वारा प्रसारित उस कथित "कल्चर" के सिद्धांत को स्वामी जी ने तर्क और दर्शन के माध्यम से खंडित किया। शिकागो में उनके उद्घोष ने यह सिद्ध किया कि भारत की संस्कृति, धर्म और दर्शन विश्व की सबसे उन्नत विचारधाराओं में से एक है। उन्होंने भारतीय समाज को यह सिखाया कि स्वतंत्रता केवल बाहरी दासता से मुक्ति नहीं, बल्कि आंतरिक बंधनों और आत्मविस्मृति से उबरने का नाम है।  

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उनका जीवन और कार्य, उन अनगिनत क्रांतिकारियों और नेताओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बने, जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। सुभाष चंद्र बोस ने स्वयं कहा था कि स्वामी विवेकानंद उनके जीवन के सबसे बड़े प्रेरक थे। बोस का आत्मविश्वास, उनके विचारों की निर्भीकता, और उनकी संकल्पशक्ति स्वामी विवेकानंद के सिद्धांतों से प्रभावित थी। भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों की विचारधारा, जो साहस और देशभक्ति की मिसाल बनी, स्वामी विवेकानंद के उन विचारों की छाया थी, जो डर और निराशा के हर अंश को नष्ट करने का संदेश देते थे।  

 

स्वामी विवेकानंद के जीवन का सबसे बड़ा योगदान था, समाज के प्रत्येक वर्ग को जोड़ने का प्रयास। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि धर्म, जाति और वर्ग के नाम पर विभाजित समाज को एक ऐसे सूत्र में पिरोया जाए, जहां व्यक्ति अपने दायित्व और अधिकार दोनों के प्रति सजग हो। उन्होंने रामकृष्ण मिशन के माध्यम से जो सेवा कार्य प्रारंभ किए, उन्होंने यह सिद्ध किया कि धर्म का वास्तविक स्वरूप केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं, बल्कि वह समाज के प्रति जिम्मेदारी और सेवा का मार्ग है। यही विचार गांधीजी के ग्रामीण स्वराज और तिलक के स्वदेशी आंदोलन में भी परिलक्षित हुआ।  

 

स्वामी विवेकानंद का दृष्टिकोण स्पष्ट था: यदि भारत को स्वतंत्र होना है, तो उसे पहले अपने भीतर जागना होगा। उनका कहना था, "स्वतंत्रता आत्मबल से ही संभव है।" इस आत्मबल का तात्पर्य केवल शारीरिक शक्ति नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक जागृति से था। उन्होंने शिक्षा को इस जागृति का आधार बताया। उनका मानना था कि शिक्षा केवल बुद्धि का विकास नहीं करती, बल्कि आत्मा को प्रकाशित करती है। उनके विचारों ने शिक्षा को उस युग में भी एक ऐसा माध्यम बनाया, जिसने भारतीय समाज को पुनर्जीवित किया।  

 

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स्वामी विवेकानंद के विचारों की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है, जितनी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान थी। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि सच्चा परिवर्तन केवल बाहरी संघर्षों से नहीं, बल्कि आंतरिक जागृति से होता है। आज, जब भारत स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे कर चुका है, विवेकानंद के विचार हमें यह याद दिलाते हैं कि स्वतंत्रता केवल एक अधिकार नहीं, बल्कि एक दायित्व है। यह दायित्व है, अपनी संस्कृति, अपनी परंपरा और अपने आत्मगौरव को संरक्षित रखने का।  

 

राष्ट्रीय युवा दिवस के अवसर पर, हमें स्वामी विवेकानंद को केवल स्मरण नहीं करना चाहिए, बल्कि उनके विचारों को आत्मसात करने का भी प्रयास करना चाहिए। उनका जीवन और उनके विचार हमें यह सिखाते हैं कि जब तक हमारे भीतर साहस, संकल्प और सेवा की भावना जीवित है, तब तक कोई भी शक्ति हमें अपने लक्ष्यों से विचलित नहीं कर सकती। स्वामी विवेकानंद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वह अप्रत्यक्ष सूत्रधार थे। जिन्होंने स्वतंत्रता के सपने को साकार करने की नींव रखी। स्वामी जी ने कहा था “गर्व से कहो हम हिन्दू हैं”। यही हमारा परिचय है। आज का दिन अपने राष्ट्र के समस्त सांस्कृतिक मानबिन्दुओं पर गर्व करने और श्रीराम मंदिर की तरह उनके पुनरूद्धार का संकल्प लेने के साथ अपने आत्मबोध और शत्रुबोध के जागरण की साधना करने का संकल्प दिवस है।   

 

 

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यह स्तम्भ दैनिक स्वदेश में 12 जनवरी 2025 “राष्ट्रीय युवा दिवस” को प्रकाशित हुआ था।  


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