विगत पांच महीनों से बांग्लादेश में हिन्दुओं का जीवन मृत्यु और जीवन के बिच के संघर्ष की दयनीय गाथा बन कर रह गया है। कभी उनकी लाशें, कभी दुकान के सामान तो कभी वो स्वयं रास्ते पर होते हैं। भारत में अभी चुनावी हार जीत के बिच भी बांग्लादेश सरकार द्वारा चिन्मय प्रभु की गैर कानूनी गिरफ़्तारी चर्चा का विषय बना हुआ है। सभी संगठन अपने-अपने हिसाब से इस घटना पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। पश्चिम बंग के कोलकाता सहित विभिन्न ग्रामीण अंचलों में भी हिन्दू जागरण मंच, भारत सेवाश्रम संघ जैसे संगठन हिन्दुओं के नरसंहार और चिन्मय प्रभु की अवैध गिरफतारी का विरोध कर रहे। परन्तु कहीं सन्नाटा है तो वो हैं वामपंथी ! क्यों भाई जिस आंदोलन की उपज ये हिन्दू नरसंहार है उसको तो आपने सड़क पर उतर कर कोलकाता, दिल्ली सहित कई जगहों पर प्रदर्शन कर समर्थन दिया था। थोड़ी उसकी चर्चा की जाये जिससे आपको वो प्रसंग ध्यान में आ जाये। विगत पांच महीनों से बांग्लादेश में हिन्दुओं का जीवन मृत्यु और जीवन के बिच के संघर्ष की दयनीय गाथा बन कर रह गया है। कभी उनकी लाशें, कभी दुकान के सामान तो कभी वो स्वयं रास्ते पर होते हैं। भारत में अभी चुनावी हार जीत के बिच भी बांग्लादेश सरकार द्वारा चिन्मय प्रभु की गैर कानूनी गिरफ़्तारी चर्चा का विषय बना हुआ है। सभी संगठन अपने-अपने हिसाब से इस घटना पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। पश्चिम बंग के कोलकाता सहित विभिन्न ग्रामीण अंचलों में भी हिन्दू जागरण मंच, भारत सेवाश्रम संघ जैसे संगठन हिन्दुओं के नरसंहार और चिन्मय प्रभु की अवैध गिरफतारी का विरोध कर रहे। परन्तु कहीं सन्नाटा है तो वो हैं वामपंथी ! क्यों भाई जिस आंदोलन की उपज ये हिन्दू नरसंहार है उसको तो आपने सड़क पर उतर कर कोलकाता, दिल्ली सहित कई जगहों पर प्रदर्शन कर समर्थन दिया था। थोड़ी उसकी चर्चा की जाये जिससे आपको वो प्रसंग ध्यान में आ जाये।
18 जुलाई को, कोलकाता के पार्क सर्कस में ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन (AIDSO) के 100 से अधिक कार्यकर्ताओं ने बांग्लादेश में आरक्षण प्रणाली के विरोध में मारे गए सात छात्रों की मौत पर शोक व्यक्त करते हुए प्रदर्शन किया। वामपंथी छात्र संगठन के प्रदर्शनकारियों ने बांग्लादेशी सुरक्षा बलों की हिंसा के खिलाफ नारों के साथ हाथों में तख्तियां थाम रखी थीं। उनकी आवाज़ें, जो बांग्लादेशी प्रदर्शनकारियों के समर्थन में उठी थीं, न केवल अन्याय के खिलाफ थीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय एकजुटता का प्रतीक भी बताई गईं थीं। चार AIDSO के प्रदर्शनकारियों ने बांग्लादेश उप उच्चायोग में जाकर एक ज्ञापन सौंपा, जिसमें उन्होंने बांग्लादेश में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर हो रहे हमलों को रोकने की मांग की। उन्होंने प्रधानमंत्री शेख हसीना की अगुवाई वाली सरकार से अपील की कि वह प्रदर्शनकारी छात्रों के साथ संवाद स्थापित करें ताकि इस मुद्दे का समाधान किया जा सके।

लेकिन आज जब उस आंदोलन की पीछे की वास्तविक मंशा दुनिया जान गई है तब ये सोचना आवश्यक हो जाता है कि क्या वो विरोध केवल एक प्रतीकात्मक कदम था? या भारत के वामपंथी संगठन बांग्लादेश की लोकतान्त्रिक सरकार तथा बंगाली हिन्दुओ के खिलाफ जो षड्यंत्र रचे गए थे उसके हिस्सेदार थे? उन्होंने उस तथाकथित आंदोलन की सफलता को सुनिश्चित करने के लिए वैश्विक दबाव डालने और अपना समर्थन दिखने के लिए बांग्लादेश जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया ? क्या ये प्रदर्शन केवल राजनीतिक रणनीति का हिस्सा थे, या उनमें मानवाधिकारों और सामाजिक न्याय की सच्ची भावना थी? जब उनके नारों में बांग्लादेशी छात्रों की मौत के लिए न्याय की मांग गूँज रही थी, तो बंगाल के वामपंथी संगठनों की चुप्पी बांग्लादेश के हिंदू समुदाय पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ क्यों बरकरार है? क्या वामपंथी संगठनों का यह कर्तव्य नहीं है कि वे बांग्लादेश में धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो रही हिंसा पर भी उतनी ही मुखरता दिखाएं? क्या यह चुप्पी उनके विचारधारा के सिद्धांतों पर सवाल नहीं उठाती? जुलाई 2024 को बांग्लादेशी कोटा आंदोलन के समर्थन में कोलकाता स्थित बांग्लादेशी वाणिज्य दूतावास के सामने उनकी रैली ने एक नए सवाल को जन्म दिया है: यह आंदोलन वास्तव में किसके पक्ष में था, और इसके परिणामों पर उनकी चुप्पी क्यों है?

बांग्लादेश में हिंदू समुदाय पर हो रही क्रूरता और धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो रही हिंसा की घटनाएँ केवल स्थानीय आतंकवादी संगठनों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि कई बार इन घटनाओं में राज्य के संस्थानों की भूमिका भी रही है। यहाँ तक की बांग्लादेशी फ़ौज ने भी सीसीटीवी बंद कर हिन्दुओं पर अत्याचार किये है। दुर्गा पूजा के दौरान बांग्लादेश के विभिन्न हिस्सों में हिंदू मंदिरों, मूर्तियों और पूजा पंडालों पर हमले किए गए। चरमपंथी संगठनों ने इन धार्मिक स्थलों को निशाना बनाकर हिंदू समुदाय के मन में भय और असुरक्षा का माहौल पैदा किया।
इसके साथ ही, हिंदू परिवारों की भूमि पर अवैध कब्जा और आगजनी की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं। कई परिवारों के घरों को जला दिया गया ताकि वे पलायन के लिए मजबूर हो जाएं। यह एक सोची-समझी रणनीति है, जिसका उद्देश्य हिंदू समुदाय को कमजोर करना और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को प्रभावित करना है। इसके अलावा, हिंदू महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा, अपहरण और जबरन धर्म परिवर्तन जैसे अपराधों में भी वृद्धि हुई है। यह समुदाय को और अधिक भयभीत करने और उनकी धार्मिक स्वतंत्रता को बाधित करने का प्रयास है। पुलिस और प्रशासन अक्सर इन हिंसक घटनाओं के दौरान निष्क्रिय रहते हैं या आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई करने में विफल रहते हैं। यह दर्शाता है कि या तो राज्य इन घटनाओं में शामिल हैं या फिर उन्हें रोकने में असफल हो रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों और संयुक्त राष्ट्र ने इन घटनाओं पर चिंता व्यक्त की है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ हो रही हिंसा को "चौंकाने और अस्वीकार्य" बताया है। इसके बावजूद, प्रभावी कार्रवाई की कमी के कारण हिंदू समुदाय की सुरक्षा और अधिकारों पर गंभीर प्रश्न उठते हैं। यह स्थिति केवल धार्मिक हिंसा का मामला नहीं है, बल्कि मानवता के खिलाफ अपराध है। बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ हो रही यह हिंसा और अत्याचार अंतरराष्ट्रीय समुदाय और विशेष रूप से भारत के लिए भी गहरी चिंता का विषय है।
वामपंथी संगठनों का इतिहास हमेशा से ‘समाजवाद’ और ‘मानवाधिकारों’ की रक्षा करने के दावे से भरा रहा है। उनका दावा यह रहा है कि वे सभी धर्मों और जातियों के बीच समानता की बात करते हैं, लेकिन उनकी नीतियों और आंदोलनों की वास्तविकता अक्सर उनके दावों से मेल नहीं खाती। यदि हम बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों की बात करें, तो वामपंथी संगठनों का रवैया हमेशा चुप्पी का रहा है। यह स्थिति न केवल बांग्लादेश में हिंदू समुदाय के खिलाफ होने वाली हिंसा की अनदेखी करने की है, बल्कि यह भी सवाल उठाती है कि क्या उनका यह रवैया केवल मुस्लिम तुष्टिकरण की रणनीति का हिस्सा है। जब 18 जुलाई 2024 को वामपंथी छात्र संगठन AIDSO ने बांग्लादेश में छात्रों के खिलाफ हिंसा के विरोध में प्रदर्शन किया, लेकिन बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों पर हो रही हिंसा के खिलाफ कोई उल्लेखनीय प्रदर्शन या विरोध क्यों नहीं हुआ?
वामपंथी संगठनों ने हमेशा मुस्लिम तुष्टिकरण की रणनीति को अपनाया है। उदाहरण के लिए, 1946 के ग्रेट कोलकाता किलिंग्स’ में, जहां मुस्लिम कट्टरपंथियों ने हिंदू समुदाय के खिलाफ हिंसा की थी, वामपंथियों ने इस पर आश्चर्यजनक रूप से सुविधावादी रणनीति अपनाई। वामपंथी नेताओं का रवैया हमेशा से बंगाल में मुस्लिम राजनीतिक शक्ति के पक्ष में रहा है। यह राजनीति तब और अधिक संदिग्ध हो जाती है जब वे बांग्लादेश में हिंदू समुदाय के खिलाफ हो रही हिंसा पर चुप रहते हैं, क्योंकि इससे यह स्पष्ट होता है कि उनकी प्राथमिकता मुस्लिम तुष्टिकरण है, न कि मानवाधिकार या समाजवाद।
वहीं, वामपंथी संगठन भारत के विभाजन के समय भी मुस्लिम तुष्टिकरण के पक्षधर थे। बंगाली भाषा और बंगाली भावना की राजनीति से वामपंथी संगठनों ने अपने हित साधे। 2021 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने लोगो को बताया कि अगर भाजपा पश्चिम बंगाल में जीत जाएगी तो बाजारों में ‘माछ’ बेचना बंद करवा देगी। ये सर्वविदित है कि बंगाली समाज को ‘माछ-भात’ प्रिय है। ये भ्रम फैलाकर उन्होने बंगाली भावना का दुरूपयोग किया फिर भी पश्चिम बंगाल में शून्य पर रहे।
बांग्ला भाषा, बंगाली संस्कृति और बंगाली खानपान पर ऐसे बात करेंगे जैसे ये वामपंथी इसके एकमात्र संरक्षक और पैरोकार है। इनके पास इनकी ‘ट्रस्टशिप’ है पर जब बांग्लादेश में बंगाली हिन्दू मारा जा रहा है तब ये उनसे किनारा कर ले रहे है। क्यों भाई? वास्तव में इनको हिन्दू चाहे जिस भी भाषा-भाषी हो, प्रान्त थवा देश कोई भी हो जब तक इनके ‘अजेंडे’ पर ‘फिट’ नहीं बैठता तब तक इनका समाजवाद, मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि का ढोंग जगता नहीं है और जब दोषी कट्टरपंथी जिहादी हो तब तो ये नारे लगाने लगेंगे उसी के पक्ष में। चाहे वो अफजल गुरु हो या सर्जिल इमाम। भारत के साधु समाज को सामान्य जनता को इनकी द्विचरिता के बारे में बताना होगा। इन वामपंथी संगठनों की वास्तविकता समाज के समक्ष आनी चाहिए क्योंकि जानकारी ही इनसे बचाव है।

ये लेख स्वदेश दैनिक में 1 दिसंबर 2024 को प्रकाशित हुआ