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कृत्रिम बुद्धिमत्ता के दौर में भारतीय लोक चेतना और बौद्धिक संप्रभुता

2025-02-02  विप्लव विकास

सूचना प्रौद्द्योगिकी के क्षेत्र में कार्य करने वाले लोगों के एक व्हाट्सप्प समूह में दो दिनों तक लगातार चर्चा हुई कि चीनी डीपसीक के एआई (एआई) प्रारूप के कारण अमेरिकी शेयर बाजार भी बुरी तरह प्रभावित हो गया। भारत पर इस तकनीक के प्रभाव की चर्चा करना आवश्यक है। इस नई तकनीक से हम सभी का प्रभावित होना अवश्यम्भावी है। बचपन से विज्ञान वरदान या अभिशाप के बारे में पढ़ते आ रहे हैं। एआई भी इसी विज्ञान की देन है। सोचिये, आप अपने मोबाइल पर कुछ खोजते हैं, और कुछ ही क्षणों में आपके सोशल मीडिया फीड, न्यूज़ वेबसाइट और यूट्यूब अनुशंषाएं  उसी विषय से भर जाती हैं। यह संयोग नहीं है, बल्कि एआई का वह अदृश्य जाल है जो आपकी रुचियों, विचारों और व्यवहार को नियंत्रित करने की कोशिश करता है। जब एआई हमारी सोच, प्राथमिकताओं और यहां तक कि हमारी लोक चेतना को गढ़ने लगे, तब चिंतन आवश्यक है—हम अपनी बौद्धिक सम्प्रभुता कैसे सुरक्षित रख सकते हैं? 

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एआई केवल एक तकनीकी नवाचार नहीं है; यह वैश्विक शक्ति संतुलन, बौद्धिक संप्रभुता और सांस्कृतिक अस्तित्व का एक नया युद्धक्षेत्र बनने जा रही है। अमेरिका और चीन ने एआई के माध्यम से वैश्विक नैरेटिव नियंत्रित करने का खेल शुरू कर दिया है। उनके बनाए एल्गोरिदम तय कर रहे हैं कि हमें कौन-सी खबरें दिखेंगी, किन किताबों को पढ़ने की सिफारिश मिलेगी, और यहां तक कि किन राजनीतिक विचारों को बढ़ावा दिया जाएगा। हमने देखा पिछली लोकसभा चुनाव के समय इसके प्रयोग से भ्रम कैसे फैलाया गया। दिल्ली चुनाव में तो चुनाव आयोग ने इसके प्रयोग से संबंधित सुझाव भी राजनीतिक दलों को दिए है। परन्तु भारत से बाहर बैठकर भारतीय मन को नियंत्रित करने वाली शक्ति को चुनाव आयोग के नियमों से कोई बांध सकता है क्या? ऐसे में, विचार करना आवश्यक है कि भारतीय लोक चेतना पर एआई का क्या प्रभाव पड़ रहा है?  

 

जो समाज अपनी बौद्धिक संप्रभुता और लोक चेतना खो देता है, वह धीरे-धीरे अपनी सांस्कृतिक पहचान भी गंवाने लगता है। आज का  सूचनात्मक युद्ध तलवारों से नहीं, बल्कि सौम्य शक्ति के हथियारों जैसे  एआई, डेटा एनालिटिक्स, एल्गोरिदम आदि के माध्यम से लड़ा जा रहा है। गूगल, मेटा, ओपनएआई, माइक्रोसॉफ्ट जैसी वैश्विक तकनीकी कंपनियाँ डेटा पर नियंत्रण रखते हुए एआई के माध्यम से विचारधाराएँ गढ़ रही हैं। इनका डेटा मुख्यतः पश्चिमी मूल्यों और हितों से प्रेरित होता है। एलजीबीटीक्यू जैसे आंदोलनों के प्रसार और समर्थन के लिए आपको मानसिक रूप से विवश करने की रणनीति में बड़ी कंपनियां भी सहभागी हैं। इनके नियंत्रक या एल्गोरिदम तय करने वाले तकनीकी विशेषज्ञ धीरे-धीरे आपके विचारों को मोड़ने का काम करते हैं। फेसबुक पर आपके पोस्ट ‘कम्युनिटी पॉलिसी वायोलेशन’ बताकर हटाए जाते हैं—हुआ है न? कभी गौर किया है कि भारतीय इतिहास या संस्कृति पर खोज करने पर सिर्फ पश्चिमी संस्थानों द्वारा प्रमाणित सामग्री ही प्रमुखता से क्यों मिलती है? भारतीय दृष्टिकोण या तो हाशिए पर रखा जाता है या संदिग्ध ठहराया जाता है। यह केवल तकनीक नहीं, बल्कि  वैचारिक वर्चस्व स्थापित करने का साधन बन चुका है। 

कई बार भारतीय मूल्यों को ‘रूढ़िवादी’ या ‘पिछड़ा’ दिखाने की प्रवृत्ति होती है, जबकि पश्चिमी जीवनशैली को ‘आधुनिक’ और ‘विकसित’ के रूप में प्रचारित किया जाता है। भारतीय राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज से जुड़ी जानकारी एआई-आधारित प्लेटफॉर्म्स पर एकतरफा तरीके से प्रस्तुत की जाती है। यह पक्षपात भारतीय विचारधारा की बहुलतावादी संरचना के लिए खतरा बन सकता है और समाज में वैचारिक असंतुलन उत्पन्न कर सकता है। यदि एक पूरी पीढ़ी विदेशी एआई द्वारा गढ़ी गई सामग्री को ही सत्य मानने लगे, तो भारतीय समाज अपनी बौद्धिक जड़ों से कट सकता है। यह  सांस्कृतिक आत्मसातीकरण  की ओर ले जा सकता है, जहाँ हमारी पहचान धीरे-धीरे मिटने लगती है। यदि हमें अपनी बौद्धिक संप्रभुता को सुरक्षित रखना है, तो हमें  स्वदेशी दृष्टिकोण को प्राथमिकता देनी होगी। तकनीकी क्षेत्र में आत्मनिर्भरता बढ़ानी होगी और मजबूत भारतीय एआई मॉडल त्वरित गति से विकसित करने होंगे।  क्या हम डेटा-युग में अपनी सांस्कृतिक चेतना को बचाने के लिए तैयार हैं? 

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Image Courtesy: Tech News

भारत को एआई के नैरेटिव युद्ध में सिर्फ उपभोक्ता नहीं, बल्कि निर्माता बनना होगा। स्वदेशी एआई प्लेटफॉर्म विकसित किए जाएं, जो भारतीय लोक चेतना व बौद्धिक संप्रभुता की रक्षा करें। सरकार और आईटी कंपनियाँ मिलकर चैटजीपीटी जैसे सहज और प्रभावशाली एआई मॉडल बनाएं, जो भारतीय दर्शन और सांस्कृतिक संदर्भों के अनुकूल हों। कानून के माध्यम से डेटा संप्रभुता सुनिश्चित कर विदेशी एआई के भारतीय डेटा दोहन पर रोक लगे। भारतीय भाषाओं का डिजिटल सशक्तिकरण ज़रूरी है, ताकि हिंदी, कन्नड़, तमिल, संस्कृत, बांग्ला, मराठी आदि भाषा-समर्थित एआई विकसित हो सकें। आधुनिक एआई तकनीकों को भारतीय इतिहास, दर्शन और संस्कृति के साथ जोड़ते हुए इसके प्रशिक्षण प्रणाली को अद्यतन एवं युदधगति में क्रियान्वित किया जाना चाहिए, ताकि नई पीढ़ी डिजिटल उपनिवेश बनने की जगह बौद्धिक तथा डिजिटल रूप से स्वतंत्र एवं संप्रभु बन सके। 

 

यदि हम बौद्धिक संप्रभुता की रक्षा करना चाहते हैं, तो यह आत्मनिर्भर एआई विकास, भाषाओं के तकनीकी सशक्तिकरण,  डिजिटल स्वतंत्रता को प्राथमिकता देने का समय है। इस देश के नेटीजेंस को भारतीय विमर्श केंद्रित लेख उच्च ‘डोमेन ऑथरिटी’ वाले वेबसाइट्स पर लिखने चाहिए इससे एआई को पर्याप्त तथ्य मिलेंगे और उसका प्रशिक्षण सहज होगा। भारतीय एआई बनाएं और जो एआई टूल्स उपलब्ध हैं उनका प्रशिक्षण कर उन्हें भारतीय बनाएं। केवल तकनीक को दोष देने से हम बच नहीं सकते। हमें पुरुषार्थ कर इसे अपने अनुकूल बनाना है।  स्मरण रहे, जो समाज जितना गुणात्मक रचेगा, वही अपनी बौद्धिक सम्प्रभुता और लोक चेतना के साथ बचेगा अन्यथा हमें नियंत्रित करने के प्रयास तो शताब्दियों से चल रहे हैं। आइए इस एआई के जिन्न को अपने ‘प्रॉम्प्ट’ दे कर ‘जो हुक्म मेरे आका’ कहने के लिए प्रस्तुत करें। 

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यह स्तम्भ दैनिक स्वदेश में 2 फरवरी  2025 को प्रकाशित हुआ। 


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